सत्ता के वैकल्पिक केंद्र (Alternative Centre of Power)

दोस्तों ज्ञानोदय में आपका स्वागत है, मैं नौशाद सर आज आपके लिए 12th Class का चौथा चैप्टर लेकर आया हूं । ‘सत्ता के वैकल्पिक केंद्र’ (Alternative Centre of Power)- Click for Chapter video

पहले चैप्टर में हमने शीतयुद्ध के दौर के बारे में पढ़ा । दूसरे चैप्टर (The End of Bipolarity)  को पढ़कर हमने यह जाना कि किस तरीके से शीत युद्ध खत्म हो गया और सोवियत संघ का विघटन हो गया । सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बची इसलिए अमेरिका का वर्चस्व पाया जाता है । और तीसरे चैप्टर में हमने अमेरिका के वर्चस्व (US Hegemony in world of Politics) के बारे में जाना था ।

आज हम बात करते हैं, चौथे चैप्टर की सत्ता के वैकल्पिक केंद्र इस चैप्टर में हम उस संगठन की और उन देशों की बात करेंगे जो अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती दे सकते हैं ।

A. क्षेत्रीय संगठन

1. यूरोपीय संघ Europian Union

2. आसियान ASEAN

B. देश

1. चीन

2. जापान

इसके अंदर हम दो क्षेत्रीय संगठनों की बात करेंगे जैसे कि यूरोपीय संघ और आसियान और दो देशों की बात करेंगे जिसमें हम बात करेंगे चीन की और जापान की । पहले बात करते हैं,
यूरोपीय संघ की

यूरोपीय संघ

यूरोपीय संघ की दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने यूरोप के पूंजीवादी देशों के लिए सहायता के लिए मार्शल योजना बनाई और 1957 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय का निर्माण किया ताकि यूरोप के जितने भी पूंजीवादी देश हैं उनके बीच आपसी व्यापार हो । सहयोग को और विकास को बढ़ावा मिले और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद सोवियत संघ से अलग हुए यूरोपीय देश भी संगठन में शामिल हो गए इसीलिए 1992 यूरोपीय आर्थिक समुदाय को समाप्त करके यूरोपीय संघ बना दिया गया ।

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यूरोपीय संघ का महत्व

यूरोपीय संघ जब से बना है तब से यूरोपीय संघ लगातार तरक्की करता जा रहा है और आज यूरोपीय संघ अमेरिकी वर्चस्व के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया है । 2005 में यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई क्योंकि इसका सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 12000 अरब डॉलर था जो जो कि अमेरिका से बहुत ज्यादा था यूरोपीय संघ की जो मुद्रा यूरो है । यूरो अमेरिकी डॉलर के लिए चुनौती बन गया है क्योंकि विश्व की मार्केट में यूरो का प्रभाव डॉलर से 3 गुना ज्यादा है । यूरोपीय संघ के देश डब्ल्यूटीओ यानी विश्व व्यापार संगठन के अंदर बड़ी-बड़ी भूमिका निभाते हैं और डब्ल्यूटीए के निर्णय को प्रभावित करते हैं इसी तरीके से फ्रांस को यूएन की सुरक्षा परिषद के अंदर स्थाई सदस्यता मिली हुई है । यूरोपीय संघ यूएन के अंदर भी बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । यूरोपीय सेना अमेरिका के बाद सबसे बड़ी सेना मानी जाती है और यूरोपीय संघ का रक्षा बजट अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा है । इसलिए अमेरिका के बाद कोई देश होगा जो जिसका वर्चस्व होगा वह होगा यूरोपीय संघ ।

हालांकि यूरोपीय संघ के सामने भी आज के समय बहुत सारी चुनौतियां हैं जिसकी वजह से यह संगठन अमेरिका को पीछे नहीं छोड़ पाता । यूरोपीय संघ के मार्ग में बाधाएं या चुनौतियां

पहली चुनौती है कि जो यूरोपीय संघ के देश हैं उन्होंने अपना एक साझा संविधान बनाने की कोशिश की । लेकिन उनकी यह कोशिश नाकाम रही, यानी कि यूरोपीय संघ के अंदर जितने भी देश हैं उन सब के कानून अलग अलग हैं 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला किया तो ब्रिटेन ने तो अमेरिका का साथ दिया लेकिन फ्रांस और जर्मनी ने अमेरिका का साथ नहीं दिया । इससे यह पता लगता है कि यूरोप संघ के देशों में आपस में एकता नहीं है । यूरोपीय संघ के जितने भी देश हैं उन सब की विदेश नीतियां भी अलग अलग है । जिससे आपस में विवाद पैदा होते रहते हैं । और यूरो के मामले में भी यूरोप में एकता नहीं पाई जाती । जैसे कि स्वीडन और डेनमार्क में यूरो का विरोध किया है । सबसे बड़ी बात जून 2016 में ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया इसे ब्रेक्जिट के नाम से भी जाना जाता है । इससे तो यूरोपीय संघ और भी ज्यादा कमजोर हो गया है क्योंकि ब्रिटेन के पास सुरक्षा परिषद के अंदर स्थाई सदस्यता है और ब्रिटेन सैनिक और आर्थिक रूप से भी शक्तिशाली है और ब्रिटेन यूरोप का एक शक्तिशाली देश था । जब ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया तो यूरोपीय संघ बहुत ही कमजोर हो गया ।

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(ASEAN) Association of South East Asian Nation

दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों का संगठन

अब हम बात करते हैं आसियान की यानी कि (एसोसिएशन आफ साउथईस्ट एशियन नेशन) दक्षिण पूर्वी एशिया के 5 देशों इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर और थाईलैंड ने मिलकर 1967 में बैंकों घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए जिससे कि आसियान की स्थापना हो गई । कुछ सालों बाद ब्रूनेई, वियतनाम, लाओस, कंबोडिया और म्यांमार भी आसियान में शामिल हो गए । इस तरीके से आज के समय (Present) में आसियान में पूरे 10 देश शामिल है । आसियान की स्थापना आर्थिक विकास को तेज करने सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा देने के लिए की गई थी ।

आसियान का महत्व (Importance of ASEAN)

आसियान दुनिया का एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन है । इसीलिए इसका प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है । आसियान के सभी देश आपसी मेल मिलाप और सहयोग की नीति का पालन करते हैं । इस मेल मिलाप की नीति को कहा जाता है – आसियान शैली – जिससे विकास को तेजी से बढ़ावा मिलता है । 2003 में आसियान ने आर्थिक समुदाय, सुरक्षा समुदाय, सामाजिक और सामाजिक और सांस्कृतिक समुदाय की नीति को अपनाया । आसियान भी अमेरिका की तरह हर क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ावा देना चाहता है । आसियान के सभी देशों में एक दूसरे के खिलाफ सैनिक शक्ति का प्रयोग ना करने की सहमति है । जिससे आपसी बातचीत को बढ़ावा मिलता है और समस्याओं का शांतिपूर्ण तरीके से समाधान हो जाता है । आसियान के देशों ने अपनी सुरक्षा नीति और विदेश नीति में तालमेल बैठाने के लिए 1994 में आसियान क्षेत्रीय मंच बनाया और आसियान के देशों ने अपनी व्यापार की बाधाओं को समाप्त किया है । इसके अलावा सांझा बाजार तैयार किया है जिससे आपसी व्यापार को और विकास को बहुत तेजी से बढ़ावा मिला है । और तो और यहां तक कि आशियान ने अपने भविष्य के बारे में भी पहले से सोच लिया है । भविष्य के लिए एक दस्तावेज जारी किया है जिसे मिशन 2020 के नाम से जाना जाता है । जिसमें आशियान ने अपने भविष्य की नीतियों को और स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश की है । विजन 2020  के जरिये सबसे पहले यह बताया गया है कि आसियान देशों के बीच आपसी बातचीत को बढ़ाया जाएगा और समस्याओं का शांतिपूर्ण तरीके से समाधान किया जाएगा । आसियान देशों के संबंधों को चीन और एशियाई देशों के साथ बढ़ाया जाएगा । आसियान देशों के संबंधों को दुनिया के दूसरे क्षेत्रीय संगठनों के साथ भी बढ़ाया जाएगा । जैसे कि यूरोपीय संघ, सार्क या और आसियान के प्रभाव को हर क्षेत्रीय क्षेत्र में बढ़ाया जाएगा चाहे वह आर्थिक क्षेत्र में सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र या सैनिक क्षेत्र हो ।

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जी अब हम बात करते हैं चीन की चीन दुनिया का ऐसा देश है जिसमें बहुत तेजी से विकास किया है । चीन ने 1949 में साम्यवादी क्रांति हुई और चीन में भी सोवियत संघ जैसी सरकार बनी थी । इस सरकार में अर्थव्यवस्था और राजनीति दोनों पर साम्यवादी दल का नियंत्रण था । साम्यवादी सरकार में बड़े बड़े सरकारी उद्योग लगाए गए । शिक्षा सुविधाओं को बढ़ावा दिया गया । लेकिन जनसंख्या तेजी से बढ़ी और विकास तेज गति से नहीं हो पाया । यहां तक कि कृषि उत्पादक उत्पादन जनसंख्या के लिए कम था । लेकिन चीन ने एक ऐसे तरीके को अपनाया जिससे चीन का बहुत तेजी से और अच्छे तरीके से विकास हुआ । यानी “हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चोखा” अब इसका मतलब है कि चीन ने ऐसा तरीका अपनाया जिसमें लागत कुछ नहीं थी लेकिन चीन का विकास बहुत तेजी से हुआ । चीन में 1970 के दशक में अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार किया । अमेरिका के साथ संबंध बनाए और वैश्वीकरण की नीति को अपनाया, जिसे खुले द्वार की नीति भी कहते हैं । जिससे चीन की अर्थव्यवस्था का बहुत तेजी से विकास होने लगा ।

चीन द्वारा अपनाई गई नई आर्थिक नीति और सुधार के प्रभाव

नई आर्थिक नीतियों को अपनाने से चीन तेजी से तरक्की करने लगा । चीन में 1972 में अमेरिका के साथ संबंध बनाए । जिससे चीन को अमेरिका की सहायता मिली और विकास को बढ़ावा मिला । 1972 में चीन ने कृषि उद्योग और सेना के आधुनिकीकरण की नीति को अपनाया । चीन ने 1978 में वैश्वीकरण की नीति को अपनाया जिसे खुले द्वार की नीति भी कहते हैं । यानी चीन के अंदर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया गया । 1998 में चीन ने विशेष आर्थिक क्षेत्र एसईजेड स्पेशल इकोनामिक जोन बनाए ताकि विदेशी निवेशकों को तेजी से बढ़ावा मिल सके । 2001 में चीन विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बन गया जिससे चीन का प्रभाव और भी तेजी से बढ़ने लगा । अब चीन बहुत तेजी से तरक्की करता जा रहा था ।

भारत और चीन के संबंध

ऐसे में भारत और चीन के संबंधों के बारे में भी जानना बहुत जरूरी है । भारत और चीन के संबंध वक्त के साथ साथ बदलते रहे हैं । शुरू में दोनों देशों के संबंध सीमा विवाद की वजह से तनावपूर्ण हो गए थे । तनावपूर्ण जो संबंध हुए जो रिलेशन खराब हुए वह तिब्बत की वजह से खराब हुए थे । तिब्बत, भारत और चीन के बीच एक छोटा सा राज्य है । 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था, जिसका भारत ने विरोध किया । 1959 में तिब्बती लोगों और दलाई लामा को भारत में रहने दिया गया जिससे भारत और चीन के संबंध खराब हो गए । क्योंकि भारतीयों ने तिब्बतियों को अपने यहां पर पनाह दी । भारत ने चीन के दुश्मन दलाई लामा को अपने यहां पर रहने दिया । इससे भारत और चीन के संबंध बहुत ही ज्यादा खराब हो गए । तनाव पूर्ण हो गए । इसी वजह से चीन ने आगे चलकर 1962 में भारत पर हमला कर दिया । भारत के बहुत सारे हिस्सों पर कब्जा कर लिया । चीन ने पाकिस्तान की भारत के खिलाफ मदद की थी । आर्थिक रूप से, सैनिक रूप से भारत के खिलाफ पाकिस्तान को support किया । इसी तरीके से भारत और चीन के संबंध लगातार बिगड़ रहे थे ।

भारत और चीन के संबंधों में सुधार

लेकिन आगे चलकर संबंधों में सुधार भी आया । 1980 के दशक में जब राजीव गांधी ने 1988 में चीन की यात्रा की तो इससे दोनों देशों में बातचीत शुरू हुई । संबंधों में सुधार हुआ । प्रजेंट में भी धीरे-धीरे करके दोनों देशों के संबंध सुधर रहे हैं । जब 1991 में भारत में वैश्वीकरण की नीति को अपनाया तो भारत और चीन के आपसी व्यापार को बहुत तेजी से बढ़ावा मिला । जैसे 1992 में दोनों देशों के बीच 33 करोड़ डॉलर 8000000 का व्यापार हुआ । 1999 से दोनों देशों के बीच वह हर साल व्यापार 30% की दर से बढ़ रहा है । 2006 में भारत और चीन का व्यापार 18 अरब डॉलर तक पहुंच गया जिससे संबंध में सुधार का पता चलता है तो व्यापार से यह पता चलता है कि भारत और चीन के संबंध सुधर रहे हैं । अगर भारत और चीन के संबंध खराब होते तो इससे व्यापार में भी असर पड़ता । दोनों देश सीमा संबंधित विवाद को हल करने के लिए बातचीत और आपसी सहयोग का भी समर्थन करते हैं । इस तरीके से भारत और चीन के संबंध धीरे धीरे कर के सुधरने लगे हैं ।

अब हम बात करते हैं एक ऐसे देश की जिसने अपने आप को बहुत तेजी से आगे बढ़ाया और दुनिया में महाशक्ति बनने की कगार पर वह खड़ा हो गया है । वह देश है जापान

जापान दुनिया का इकलौता एक ऐसा देश है, जिसने परमाणु बम की मार झेली है । हालांकि परमाणु बम और किसी देश पर गिर जाए तो वह आने वाले 50 सालों तक आसानी से तरक्की नहीं कर सकता । लेकिन जापान ने अपनी अर्थव्यवस्था को जिस तरीके से रिपेयर किया है सुधारा है उसे एक चमत्कार ही कहा जा सकता है । आपने बहुत सारी कंपनियों के नाम सुने होंगे सोनी, पैनासोनिक, होंडा, हिताची, कैनन आदि । यह सारी बहुत बड़ी बड़ी कंपनियां मशहूर उच्च तकनीकी उत्पादन के लिए मशहूर है, और यह सारी जापान की कंपनियां है । तो जापान ने बहुत तेजी से विकास किया है, और अपने देश के लिए तरक्की की है । हालांकि जापान के अंदर प्राकृतिक संसाधन की कमी है लेकिन इसके बावजूद जापान उच्च तकनीक के दम पर बहुत तेजी से तरक्की की है । आज जापान एशिया की नंबर वन अर्थव्यवस्था है और दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है । जापान एशिया का एकमात्र देश है जो G8 का सदस्य है । जिएट में सिर्फ 8 देशों के ही सदस्य हैं उनमें से जापान भी एक है । जी जापान यूएन के बजट में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा दान देता है यानी 20 परसेंट रकम जो यूएन को चलाने चलाने के लिए खर्च की जाती है । जापान अपनी राष्ट्रीय आय का मात्र 1% अपनी सुरक्षा पर खर्च करता है फिर भी सैनिक क्षेत्र में जापान चौथा स्थान है । अगर जापान अपने रक्षा बजट को बढ़ा दे 10% कर दे  या 20% कर दे तो जापान की सेना नंबर वन पर आ जाएगी और अमेरिका सेना को भी पीछे छोड़ देगी । अब हम बात करते हैं कि क्षेत्रीय संगठन कहते किसे हैं और क्षेत्रीय संगठन बनाए क्यों जाते हैं |

क्षेत्रीय संगठन का अर्थ

जब किसी क्षेत्र में स्थित देश अपने कुछ विशेष उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किसी संगठन का निर्माण कर लेते हैं तो ऐसे संगठन को ही क्षेत्रीय संगठन कहा जाता है । क्षेत्रीय संगठन जैसे यूरोपीय संघ, आसियान, सार्क यह सब क्षेत्रीय संगठन है ।

क्षेत्रीय संगठन क्यों बनाये जाते हैं ?

क्षेत्रीय संगठन आपसी बातचीत को बढ़ावा देने के लिए, विवादों का शांतिपूर्ण समाधान करने के लिए, आपसी सहयोग को बढ़ावा देने के लिए और आर्थिक विकास को और आपसी व्यापार को तेज करने के लिए । और उन को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्रीय संगठन वही देश बनाते हैं जो मौलिक रूप से एक दूसरे के निकट होते हैं नजदीक होते हैं यानी की भौगोलिक निकटता क्षेत्रीय संगठन के निर्माण के लिए आवश्यक है बिना भौगोलिक निकटता के क्षेत्रीय संगठन आसानी से नहीं बन सकते क्योंकि भौगोलिक रूप से जो निकट स्थित देश होते हैं, वह एक दूसरे के बाजार का आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं । एक दूसरे के साथ सड़क और रेल से आसानी से जुड़े होते हैं । और अपनी समस्याओं का समाधान बातचीत के जरिए आसानी से कर लेते हैं इसलिए भौगोलिक रूप से निकट स्थित देश ही क्षेत्रीय संगठन बनाते हैं ।

भारत और चीन का बढ़ता प्रभाव

भारत और चीन दुनिया में तेज गति से तरक्की कर रहे हैं । और दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिका को चुनौती देने की क्षमता है क्योंकि भारत और चीन की जो जनसंख्या है, वह दुनिया में सबसे ज्यादा है । दोनों देशों की अर्थव्यवस्था तेज गति से विकास कर रही है । भविष्य में दोनों देश मिलकर अमेरिका के आर्थिक वर्चस्व का सामना कर सकते हैं । दरअसल चीन और भारत सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देश हैं यानी चीन में बहुत ज्यादा जनसंख्या है और भारत में भी बहुत ज्यादा जनसंख्या है तो पूरी दुनिया भर तो पूरी दुनिया भारत और चीन को बाजार के रूप में देखती है । अगर चीन और भारत दुनिया के किसी देश का सामान अपने देश में ना बिकने दें तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था तेजी से गिर जाएगी इसीलिए दोनों देश मिलकर अमेरिका के आर्थिक वर्चस्व को तेजी से चुनौती दे सकते हैं ।

चीनी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन

जब चीन आजाद हुआ था तो चीन की जो अर्थव्यवस्था थी नियंत्रित व्यवस्था थी लेकिन जब 1970 के दशक में चीन में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया गया । सुधारों को अपनाया गया तो चीन की अर्थव्यवस्था नियंत्रित अर्थव्यवस्था से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बन गई  । नियंत्रित अर्थव्यवस्था में चीन सरकार के द्वारा बनाई जाती है और सरकार के द्वारा बांटी जाती लेकिन चीन के अंदर वस्तुओं का उत्पादन निजी उद्योगों के को द्वारा किया जाता है ।  चीन अब नियंत्रित अर्थव्यवस्था नहीं रहा नियंत्रित अर्थव्यवस्था में वस्तु की कीमत सरकार के द्वारा तय की जाती है लेकिन चीन में वस्तु की कीमत बाजार के द्वारा तय की जाती है यानी चीन नियंत्रित अर्थव्यवस्था वाला देश नहीं है पहले था अब नहीं है । अनियंत्रित अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता नहीं होती कंपटीशन बिल्कुल भी नहीं होता लेकिन चीन में आज के वक्त में खूब ज्यादा प्रतियोगिता है नियंत्रित अर्थव्यवस्था में सरकार का नियंत्रण पाया जाता है नियंत्रित अर्थव्यवस्था चीन अब खुली अर्थव्यवस्था बन गई है ।

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