राजनीति विज्ञान में अधिकारों के प्रमुख सिद्धान्त

Principles of Rights in Political Science in Hindi

Hello दोस्तों ज्ञान उदय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान में अधिकारों के प्रमुख सिद्धांतों के बारे में । मनुष्य समाज में रहता है और उसकी सभी ज़रूरतें समाज में रहकर ही पूरी होती हैं । अधिकारों का प्रश्न केवल एक समाज में ही उत्पन्न होता है ।

अधिकारों का अर्थ

अधिकार राज्य के द्वारा व्यक्तियों को प्राप्त होने वाली उन परिस्थितियों और अवसरों को कहते हैं, जो उनके आर्थिक और आत्म विकास के लिए ज़रूरी होती है ।

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जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । व्यक्तियों द्वारा समाज बनता है । अकेला व्यक्ति समाज नहीं बना सकता । वह अन्य व्यक्तियों के साथ रहता है । समाज मे रहने के लिए और व्यक्ति को जीवन निर्वाह करने के लिए उनकी बहुत सी आवश्यकताएं और इच्छाऐं होती हैं । जिसको पूरा करने के लिए समाज की आवश्यकता होती है । जिन्हें अधिकारों के नाम से जाना जाता है ।

लास्की के अनुसार

“अधिकार सामाजिक जीवन की वह परिस्थितियां हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से आत्मविकास नहीं कर सकता ।”

सुव्यवस्थित सामाजिक तथा सामंजस्य पूर्ण जीवन के अनुरूप कई प्रकार की मांगों की उत्पन्न होती हैं । इसके लिए प्रत्येक मांग को सामाजिक स्वीकृति मिलना जरूरी है । प्रत्येक व्यक्ति की मांग में अन्य व्यक्तियों की वैसी ही मांग की स्वीकृति भी जुड़ी रहती है । अतः अधिकारों का अर्थ है कि यह व्यक्ति की सारी मांग वह शक्ति है, जिसका प्रयोग करते समय वह न केवल अपने व्यक्तित्व का विकास करें, बल्कि अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व के विकास में बाधा ना बनें । सभी मांगों को अधिकारों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि उस मांग विशेष को अधिकार बनाने हेतु सामाजिक स्वीकृति का होना अत्यंत जरूरी है ।

नकारात्मक और सकारात्मक अधिकार

राज्य में व्यक्तियों की जिन गतिविधियों पर राज्य की तरफ से कोई रोक नहीं होती, उन्हें नकारात्मक अधिकारों की श्रेणी में रखा जा सकता है । जैसे व्यक्ति की सोच, विचार, उसकी अभिव्यक्ति आदि । स्वतंत्रता के अधिकार पर हमेशा राज्य द्वारा कोई रोक नहीं लगाई जाती । अतः यह एक नकारात्मक अधिकार है ।

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सकारात्मक अधिकारों के अंतर्गत राज्य द्वारा व्यक्तियों के विकास के लिए की गई व्यवस्थाओं की चर्चा की जाती है । जैसे सार्वजनिक शिक्षा का अधिकार, चिकित्सा का अधिकार, कानूनी सहायता का अधिकार आदि । यह सब व्यक्ति के सकारात्मक अधिकार होते हैं ।

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अधिकारों पर बल

अ. पूंजीवादी राज्य में नकारात्मक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है । जबकि

ब. समाजवादी राज्य में सकारात्मक अधिकारों पर बल दिया जाता है । इसके अलावा

स. कल्याणकारी राज्य के अंतर्गत नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही अधिकारों पर बल दिया जाता है ।

अधिकारों के प्रमुख सिद्धांत

आइये अब बात करते हैं, अधिकारों के प्रमुख सिद्धान्तों के बारे में । जो कि निम्नलिखित हैं ।

1 प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत

अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धांत के अनुसार हर इंसान अपने अधिकारों का उसी तरह स्वामी (मालिक) हैं, जिस तरह वह अपने हाथ-पांव तथा अन्य अंगों पर अधिकार रखता हैं । जो किसी के द्वारा प्रदान नहीं किए गए हैं, बल्कि यह प्रकृति की देन है । समाज तथा राज्य का यह दायित्व है, कि अधिकारों का सम्मान तथा सुरक्षा करें ।

प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत 17वीं तथा 18 वीं शताब्दी में अधिक प्रचलित हुआ । सामाजिक अनुबंध के विचारकों ने यह मत प्रस्तुत किया कि कुछ अधिकार राज्य की उत्पत्ति से पहले अर्थात प्राकृतिक अवस्था में भी विद्यमान थे । इनको प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है । इन अधिकारों का सृजन राज्य ने ही किया है, बल्कि राज्य का जन्म इन अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ है ।

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जॉन लॉक ने जीवन स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अधिकारों को प्राकृतिक अधिकारों की श्रेणी में रखा है । यह अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व में ही निहित है तथा राज्य के अस्तित्व पर आश्रित नहीं है । नागरिक समाज तथा राज्य की उत्पत्ति इन्हीं अधिकारों की रक्षा के लिए है । जॉन लॉक के अनुसार यदि राज्य प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाता तो, व्यक्ति राज्य के राज्य की आज्ञा के कर्तव्य पालन से मुक्त हो सकता है ।

प्राकृतिक अधिकारों के संबंध में यदि हम पिछले इतिहास पर नजर डालें तो, यह कई प्रकार की क्रांतियों का प्रेरणा स्रोत भी रहा है । अमेरिका और फ्रांसीसी क्रांतिओं का यह एक स्वीकृत अंग था । जिसकी उत्पत्ति अमेरिकी स्वाधीनता की घोषणा तथा बिल ऑफ राइट्स (Bill of Rights) के माध्यम से तथा फ्रांस के मानव अधिकारों की घोषणा के माध्यम से हुई ।

यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं है । इसके साथ कुछ कठिनाइयां भी हैं, क्योंकि प्राकृतिक शब्द की स्पष्ट परिभाषा देना संभव नहीं है । अलग-अलग व्यक्तियों ने इसको अलग-अलग अर्थ में परिभाषित किया है ।

परंतु प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत में सबसे बड़ी खूबी यह है कि यदि कोई वर्ग कानून और व्यवस्था के भीतर अपने साथ अन्याय होते हुए देखता है, तो वह प्राकृतिक अधिकारों का हवाला देकर इस अन्याय के विरुद्ध लोकमत तैयार कर लेता है ।

2 कानूनी अधिकारों का सिद्धांत

अधिकारों के कानूनी सिद्धांत के अनुसार अधिकार राज्य की ही देन है और केवल ऐसी मांगे ही अधिकार हैं, जिन्हें राज्य का कानूनी मान्यता प्रदान करता है । इन मांगों के पूरा ना होने पर व्यक्ति न्यायपालिका के समक्ष क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है । और राज्य इन कार्यों को पूरा करने में सफल भी हो सकता है । कानूनी अधिकारों का सिद्धांत प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का उल्टा है ।

बेंथम ने तो

“प्राकृतिक अधिकारों को अराजकतापूर्ण भ्रांतियों की संज्ञा दी है ।”

टॉमस हाउस के अनुसार

“अधिकारों की उत्पत्ति, राज्य की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती है, क्योंकि राज्य विहीन अवस्था में न्याय, अन्याय । उचित, अनुचित आदि खोखले शब्द है । इस प्रकार अधिकारों का सरोकार केवल राज्य में रहने वाले मनुष्यों से ही है ।”

परंतु कानूनी अधिकारों के सिद्धांत में भी कुछ कमियां निहित है । यदि कानून को ही अधिकार की परिभाषा मान लिया जाए तो, राज्य की कानूनी मान्यता मिलने के बाद, क्या अनुचित तथा अनैतिक को भी अधिकार नहीं माना जा सकता ? अतः अधिकारों के मामले में कानून को ही अंतिम प्रमाण माना जा सकता है ।

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3 अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत

यह सिद्धांत वास्तव में प्राकृतिक अधिकारों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उभरा । यह एक रूढ़िवादी सिद्धांत है । इसके समर्थकों का तर्क है कि प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत एक मौलिक गलती है । जिसके कारण समाज में बड़े-बड़े उपद्रव पैदा होते हैं । अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत मानता है कि अधिकारों की उत्पत्ति वास्तव में इतिहास द्वारा पैदा हुई है । यह अधिकार एक लंबी परंपरा के द्वारा अस्तित्व में आए हैं ।

इसके प्रमुख समर्थक एडमण्ड बर्क हैं । उनका मानना है कि

“सभ्य समाज की स्थापना से पूर्व जिन अधिकारों की कल्पना की जाती है, उनको समाज में लागू करना एक बहुत बड़ी भूल है । यदि सामाजिक अनुबंध जैसी कोई चीज हुई होगी तो, वह प्राकृतिक अधिकारों का त्याग करके ही हुई होगी ।”

परंतु यह सिद्धांत भी पूरी तरह सटीक नहीं है, इसमें भी कुछ कमियां हैं । क्योंकि यह केवल रीति-रिवाजों तथा परंपराओं को महत्व देते हुए, उचित, अनुचित के प्रश्न को परे रख देता है । किसी समाज में प्रचलित दासता या बहुपत्नी प्रथा को उचित नहीं माना जा सकता । युग की बदलती परिस्थितियों के अनुरूप केवल उचित और न्यायपूर्ण व्यवस्था को ही मान्यता प्रदान की जा सकती है ।

4 अधिकारों का समाज कल्याण सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार समाज की देन है और अधिकारों का अस्तित्व पूरी तरह समाज कल्याण पर आधारित है । जो कुछ समाज कल्याण के लिए उपयोगी हो । उन्हीं को अधिकार मानना चाहिए तथा जो कुछ उसके विरुद्ध है । उसे अधिकार नहीं माना जा सकता । इस सिद्धांत का समर्थन मुख्य रूप से उपयोगितावादियों द्वारा किया गया है । जिसके अनुसार अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख भी संपूर्ण अधिकार व्यवस्था का आधार होना चाहिए । इसके अनुसार अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं से हैं, जो समाज में रहते हुए अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख प्राप्ति में सहायक होती है । बेंथम, मिल, लास्की, डी रासको, आदि इस सिद्धांत के प्रमुख समर्थक हैं ।

लेकिन अधिकारों के समाज कल्याण के सिद्धांत को लागू करते समय समाज के सभी व्यक्तियों के हित तथा कल्याण को ध्यान में रखा जाना चाहिए और इस बात की भी सावधानी रखी जाए कि सर्वहित के नाम पर किसी वर्ग विशेष तक ही लाभ सीमित ना होने पाए तथा अधिकारों का लाभ सर्वसाधारण को भी प्राप्त हो सके ।

लास्की ने अधिकारों के सामाजिक कल्याण सिद्धांत को आदर्शवादी सिद्धांत के साथ जोड़ देते हैं और कहते हैं कि

“अधिकार सामाजिक जीवन की वह परिस्थितियां है, जिसके अभाव में, सामान्यता कोई भी व्यक्ति अपना विकास नहीं कर सकता ।”

सामाजिक कल्याण सिद्धांत अधिकारों की सभी धारणाओं में सबसे अच्छा है । परंतु इसमें सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि लोक कल्याण की उपयुक्त परिभाषा क्या है ? इसके अतिरिक्त इस सिद्धांत की दूसरी कमी यह देखने में आती है कि इसमें सामाजिक कल्याण व्यक्तिगत अधिकारों में दखल भी दे सकता है । क्योंकि इस सिद्धांत के समर्थक मान लेते हैं कि सामाजिक हित के लिए किसी व्यक्ति को थोड़ी सी हानि पहुंचना उचित है । सौभाग्य से अधिकतर व्यक्तिगत अधिकार सामाजिक कल्याण के अनुरूप ही होते हैं । कठिनाई वहां पैदा होती है, जब दोनों में संघर्ष होता है और संघर्ष होने पर सामाजिक कल्याण सिद्धांत के पोषक व्यक्ति के हित की अपेक्षा समाज के हित को ही पसंद करने को मजबूर हैं ।

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तो दोस्तों ये था राजनीति विज्ञान में अलग अलग अधिकारों के सिद्धांत, अगर Post अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तों के साथ ज़रूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!

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