मध्यकाल का समन्वयवादी विचारक

संत थॉमस एक्विनास मध्य काल के महान समन्वयवादी विचारक

Hello दोस्तों ज्ञानउदय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, पश्चिमी राजनीतिक चिंतन में मध्य काल के महान समन्वयवादी विचारक के बारे में । जिनका नाम है, संत थॉमस एक्विनास (Saint Thomas Aquinas a Italian Philosopher) इटली के इस महानदार्शनिक को मध्य युग का महान विचारक माना जाता है । इस Post में हम जानेंगे संत थॉमस एक्विनास के महत्वपूर्ण विचारों के बारे में । साथ ही साथ जानेंगे कि संत थॉमस ने किस तरह अलग अलग विचारधाराओं को समन्वय रूप में एकत्रित किया और उनमें सम्बन्ध स्थापित किया । तो चलिए जानते हैं आसान भाषा में ।

परिचय

थॉमस एक्विनास के बारे में थोड़ा सा जान लेते हैं । संत एक्विनास एक मध्यकालीन विचारक थे । जो कि 13 वीं शताब्दी से संबंध रखते हैं । संत थॉमस एक्विनास का जन्म 1225 ईस्वी में और उसकी मृत्यु 1274 ईस्वी में हुई थी । एक्विनास को राजनीतिक और धर्मशास्त्र का अपने युग का सर्वश्रेष्ठ विचारक माना जाता है । उन्होंने बहुत सारी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जिनमें सुम्मा थेओलोजिका को सबसे प्रमुख माना जाता है ।

विचारधाराओ में समन्वय

एक्विनास को चर्च और पोप की सत्ता का प्रमुख समर्थक माना जाता है । क्योंकि मध्यकाल का एक प्रमुख मुद्दा चर्च राज्य विवाद था । एक्विनास ने राजा को अपने अपने क्षेत्र का सर्वोच्च सत्ता अधिकारी माना । जिसके हितों में विरोध नहीं है । उसका मानना था कि-

“अलौकिक और आध्यात्मिक सत्ता में समन्वय स्थापित करके चलना चाहिए । क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक है ।”

लेकिन अंत में वह विवेक पर आस्था की प्राथमिकता और दर्शन पर धर्म शास्त्र की प्रधानता को स्थापित करता है । संत थॉमस एक्विनास ने कुल मिलाकर चर्च के महत्व को स्थापित करने का प्रयास किया है ।

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संत थॉमस एक्विनास को मध्यकालीन विचारकों में सबसे महान माना जाता है । उसने तत्कालीन समय में विभिन्न वैचारिक प्रवृत्तियों को जो पहले अलग अलग थी, उनको एक दूसरे से जोड़ने का प्रयास किया था ।

एक्विनास मध्ययुग का सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिभा संपन्न दार्शनिक थे, जो कि-

“मध्य युग के समग्र विचारों का प्रतिनिधित्व करता है ।”

एक्विनास में विभिन्न विधिवक्ताओं, धर्म शास्त्रियों, टीकाकारों, ईसाई प्रचारकों, चर्च और राज्य के समर्थकों के विभिन्न और परस्पर विरोधी विचारों और दृष्टिकोण में एकता और क्रमबद्धता लाने का प्रयास किया था । इसी वजह से एक्विनास को मध्य युग का महानतम समन्वयवादी विचारक माना जाता है ।

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इस तरह से एक्विनास का युग विद्धतावाद (Scholasticism) का युग था । बौद्धिक और धार्मिक भावना के अनुरूप ईसाई धर्म की शिक्षाओं तथा अरस्तु के दर्शन के बीच समन्वय को स्थापित करना है । संत थॉमस एक्विनास ने विशेषकर धर्म और दर्शन में समन्वय करने का प्रयास किया । मुख्य रूप से एक्विनास ने समन्वय ईसाई धर्मशास्त्र और अरस्तू के दर्शन के बीच किया ।

हालाँकि एक्विनास अरस्तु के दर्शन से अत्यंत प्रभावित हुए, लेकिन अरस्तु की बातों को सही मानते हुए, उसे पूर्ण और अंतिम सत्य नहीं माना था। उसके अनुसार ईसाईधर्म द्वारा प्रतिपादित सत्य ही पूर्ण है।

“प्राचीन यूनान की बुद्धिवादी विचारधारा का ईश्वरीय ज्ञान पर आधारित ईसाई विचारधारा के साथ समन्वय किया ।”

अरस्तु के अनुसार मनुष्य का उद्देश्य ऐहिकयालौकिक सुख की प्राप्ति हैऔर इसके लिए राज्य आवश्यक संस्था है । एक्विनासने इसे स्वीकार करते हुए कहा है कि

“मानव जीवन का इससे भी बड़ा एक लक्ष्य है कि वह पारलौकिक आनंद की प्राप्ति करें, जिसकी प्राप्ति केलिएचर्च महत्वपूर्ण संस्था माना जाता है । परंतु चर्च राज्य का पप्रतिनिधित्व नहीं बल्कि सामाजिक जीवन में उसका सहयोगी है ।”

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एक्विनास के अनुसार मानव ज्ञान एक इकाई है । जिसकी तुलना एक पिरामिड से की जा सकती है और इस पिरामिड का आधार बहुत से विशिष्ट विद्वाओ से मिलकर बना हुआ है और इसमें प्रत्येक का अपना विशेष महत्व होता है । उसके ऊपर दर्शन है और यूनानी दार्शनिक दर्शन को ज्ञान का शिखर और विवेक को उसका आधार मानता है । जबकि एक्विनास दर्शन के ऊपर धर्मशास्त्र को मानता है । जिसका साधन श्रद्धा है, विवेक नहीं ।

पिरामिड

इस आयत की प्रारंभिक विचारक सैंट अगस्टाइन ने मानव को एक ने बुद्धि प्राणी माना था ।परंतु अविनाश उसकी इस धारणा से सहमत नहीं है ।

एक्विनास की मान्यता है कि पतित मनुष्य में भी बुद्धि है। परंतु वह नश्वर है । मानव बुद्धि की एक सीमा है । वह सीमित होती है । इस कारण मानव का संपूर्ण ज्ञान एक सीमा तक ही होता है । आगे वह कहता है कि जहां से मानव की बुद्धि की सीमा समाप्त होती है, वहां से आस्था और विश्वास की सीमा शुरू होती है ।

विवेक के द्वारा प्रकृति जगत का ज्ञान होता है, जबकि इससे परे भी एक ज्ञान है । जिसे केवल श्रद्धा तथा विश्वास के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।

धर्म तथा दर्शन में संबंध

एक्विनास का मानना है कि धर्म तथा दर्शन एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। दर्शन यानी Philosophy और धर्मशास्त्र यानी Theology में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जहां से दर्शन की सीमा समाप्त होती है, वहीं से धर्म शास्त्र की सीमा शुरू हो जाती है ।

वह ज्ञान और वास्तविकता है, जो मानव की बुद्धि से परे हैं । उससे हम आस्था के द्वारा ही समझ सकते हैं । या जो वास्तविकता दर्शन से परे है, उसे हम धर्मशास्त्र के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं ।

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इस प्रकार समन्वय वह होता है । जो समानता पर आधारित हो । परंतु एक्विनास द्वारा किया गया समन्वय में समानता पर आधारित नहीं है बल्कि वह धर्म शास्त्र को दर्शन से सर्वोच्च मानता है । इस संदर्भ में तर्क देते हुए एक्विनास कहता है कि-

“दर्शन और धर्म शास्त्र तथा विवेक और आस्था के बीच कोई अंतर विरोध नहीं है ।”

इसका अर्थ यह है कि जब तक व्यक्ति की बुद्धि आस्था के अनुकूल है, तो उसकी बुद्धि सही और उचित मानी जाती है । परंतु जब यह आस्था के प्रतिकूल हो जाती है, तो उसका ज्ञान सही,  बुद्धि सही नहीं मानी जाती ।

निष्कर्ष

अन्ततः अगर निष्कर्ष की बात की जाए तो, इस तरह एक्विनास पूरी तरह धर्म शास्त्र के कारण बुद्धि की धारणा को बदल देता है । धर्मशास्त्र दर्शन से ऊपर है तथा आस्था विवेक से उपर है । एक्विनास बुद्धि के ऊपर धर्मशास्त्र को मानता है जिसका साधन आस्था है विवेक नहीं ।

तो दोस्तो ये था एक्विनास के बारे में कि किस तरह से उसने अलग अलग विचारधाराओ को समन्वित रूप में जोड़ने की कोशिश की । धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र को एक बताया । अगर Post अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तो के साथ ज़रूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!

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