भारत में न्यायिक पुनरावलोकन

Judicial Review in India

Hello दोस्तों ज्ञानोदय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान के एक महत्वपूर्ण विषय जो कि न्यायिक पुनरावलोकन से संबंधित है । इस topic में हम जानेंगे भारत में न्यायिक पुनरावलोकन के बारे, इसकी परिभाषा, संवैधानिक प्रावधान, महत्व और सीमाओं के बारे में । तो चलिए शुरू करते हैं,।आसान भाषा में ।

न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ

यह वह प्रकिया है, जिसके द्वारा कार्यपालिका व विधायिका के कार्यों का पुनर्निरीक्षण किया जाता है । न्यायिक पुनरावलोकन वह शक्ति है, जिसके द्वारा विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों, कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेशों तथा प्रशासन द्वारा किए गए कार्यों की जांच की जाती है । किये गए कार्य मूल ढांचे के अनुरूप है या नहीं । मूल संरचना के अनुरूप न होने पर न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है ।

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न्यायिक पुनरावलोकन की परिभाषाएं

आइए अब जानते हैं, न्यायिक पुनरावलोकन की परिभाषाओं के बारे में । हालांकि अनेक राजनीतिक विचारकों ने पुनरावलोकन पर कई परिभाषाएं दी हैं, जिसमें मारबरी मार्शल, मैक्रीडिस, ब्रॉउन, पिनाक व स्मिथ की परिभाषाओं को महत्वपूर्ण माना जाता है ।

विचारक मारबरी मार्शल के अनुसार

“न्यायालय एक ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा यह किसी कानूनी या सरकारी कार्य को असंवैधानिक घोषित कर सकती है । जिसे यह देश की मूल विधि या संविधान के विरुद्ध समझती है ।”

मैक्रीडिस और ब्रॉउन के अनुसार

“न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ न्यायाधीशों की उस शक्ति से है, जिसके अधीन वे एक उच्चतर कानून के नाम पर विधियों की व्याख्या कर सकें और संविधान के विरुद्ध होने पर उसे अमान्य कर सकें ।”

पिनाक व स्मिथ के अनुसार

“न्यायिक पुनरीक्षण न्यायालय की वह शक्ति है, जो संविधान को स्पष्ट करती है तथा व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा प्रशासन द्वारा बनाए गए कानूनों के विरुद्ध होने पर असंवैधानिक घोषित करती है ।”

न्यायिक पुनरावलोकन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

न्यायिक पुनरावलोकन की उत्पत्ति सामान्यता संयुक्त राज्य अमेरिका में मानी जाती है, किंतु विचारक पिनाक व स्मिथ इसकी उत्पत्ति ब्रिटेन में बताते हैं ।

अमेरिका में 1787 में संविधान निर्माण करते समय न्यायिक पुनरावलोकन की कोई व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 1803 में मारबरी बनाम मेडिसन के केस में न्यायधीश मार्शल ने न्यायिक पुनर्विलोकन को सर्वप्रथम परिभाषित किया । दोनों न्यायाधीशों ने इसे कानून की वैधानिकता जांचने की महत्वपूर्ण कसौटी के रूप में स्वीकार किया ।

1803 में न्यायधीश मार्शल ने कहा कि यह न्यायालयों द्वारा अपने समझ के कानूनों व निर्णय का निरीक्षण है कि क्या यह संविधान के अनुसार है या अपनी शक्ति से बाहर ।

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन

आइए अब जानते हैं, भारत में न्यायिक पुनरावलोकन के बारे में । यह ब्रिटिश संविधान की तरह ना तो संसद की सर्वोच्चता और ना ही अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की तरह न्यायिक निरंकुश है ।

भारत में न्यायिक पुनरीक्षण की व्यवस्था सिर्फ कानूनों की व्याख्या तक ही सीमित रखी गई है । भारत के संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित कोई भी विशेष प्रबंध नहीं है । लेकिन न्यायपालिका की सर्वोच्चता में यह सिद्धांत निहीत है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के अनुसार यह संविधान को सर्वोच्च स्थान देता है । इसी कारण कानूनों के संवैधानिकता की जांच करके उसे असंवैधानिक घोषित करना सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख अधिकार भी माना जाता है ।

वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय मर्यादित तरीके से अपनी शक्ति का प्रयोग कर रहा है । गोलखनाथ मामले में सरकार तथा सर्वोच्च न्यायालय के बीच विवाद उत्पन्न हो गया था, जिसे संविधान में संशोधन करके जल्द ही दूर कर लिया गया था ।

न्यायिक पुनरावलोकन के संवैधानिक प्रावधान

आइए अब बात करते हैं, न्यायिक पुनरावलोकन के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधान के बारे में । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 (2) तथा अनुच्छेद 32 में इसकी व्यवस्था बताई गई है । अनुच्छेद 13 (2) में बताया गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा, जो संविधान के भाग 3 में उल्लेखित मूल अधिकारों का हनन करती हो या सीमित या न्यून करती हो ।

संविधान के अनुच्छेद 32 में संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि कहीं पर मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं हुआ है । इसी तरह से संविधान के अनुच्छेद 131 और 132 भी सर्वोच्च न्यायालय को संघ व राज्य सरकारों द्वारा निर्मित कानूनों के पुनरावलोकन का अधिकार प्रदान करते हैं ।

न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व

पुनरावलोकन न्यायपालिका को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करता है, जिससे वह कार्यपालिका और विधायिका के हस्तक्षेप से अलग रहकर नागरिक अधिकारों की रक्षा में अपना योगदान दें । संघात्मक व्यवस्था में संघ राज्य का गतिरोध निवारण कर सके तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा कर सकें । संविधान को गत्यात्मक बनाने, संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने तथा सामाजिक राजनीतिक विकास का मार्ग प्रशस्त करने के लिए भी न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व माना जाता है ।

न्यायिक पुनरावलोकन की सीमाएं

आइए अब बात करते हैं, न्यायिक पुनरावलोकन की सीमाओं के बारे में । न्यायपालिका की शक्ति पर कुछ सीमाएं लगाई गए हैं, जो कि इसे निरंकुश बनाने से रोकती हैं जो कि निम्न प्रकार हैं ।

न्यायपालिका केवल उन्हीं कानूनों को सीमित कर सकती है, जो उसके समक्ष मुकदमों के रूप में लाए जाते हैं । किसी कानून को तभी अवैध घोषित किया जा सकता है, जब कानून की असंवैधानिकता पूर्ण स्पष्ट हो । इस शक्ति का प्रयोग कानून की उचित प्रक्रिया के तहत किया जाना आवश्यक है । कानून की केवल उन्हीं धाराओं को अवैध बताया जाता है, जो संविधान के विपरीत हो बल्कि समस्त कानून के नहीं । राजनीतिक विवादों में इसके इस्तेमाल की मनाही है ।

न्यायिक पुनरावलोकन का मूल्यांकन

न्यायपालिका एक ऐसा अस्त्र है, जिसके द्वारा कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका विधायिका द्वारा बनाए गए असंगत तथा अवैध कानूनों की वैधानिकता की जांच करके, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा अधिकारों की रक्षा करना माना जाता है । किसी सरकार की कसौटी उत्तम न्याय व्यवस्था ही है । इस दृष्टि से देखा जाए तो न्यायपालिका ने देश हित में कार्य किया है । हालांकि इसकी कई बार शक्तियों का दुरुपयोग व आलोचना भी हुई है । बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण मामलों में ही इसका इस्तेमाल किया जाता है । जिसमें जनकल्याण की संभावना तथा शासन के दोनों अंगों के साथ संतुलन हो और साथ ही साथ गरिमा और देश का विकास संभव हो ।

तो दोस्तो ये था न्यायिक पुनरावलोकन के बारे में । हमने जाना न्यायिक पुनरावलोकन के महत्त्व, परिभाषा, संवैधानिक उपइ चार और सीमाओं के बारे में ।  जानकारी को अपने दोस्तों के साथ ज़रूर शेयर करें । तब तक के लिए धन्यवाद् !

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