नारीवाद की अवधारणा

Concept of Feminism

Hello दोस्तों ज्ञान उदय में आपका स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान में नारीवाद की संकल्पना के बारे में । साथ ही साथ हम जानेंगे इसकी विशेषताएं और प्रकार के बारे में । जैसा कि प्रचलित है, हमेशा से ही इस दुनिया में पुरुष को प्रधान माना जाता है । पुरुष ही घर का मुखिया है जिसके द्वारा सभी फैसले किये जाते हैं । क्योंकि प्राचीन काल से ही राजा, महाराजाओं ने ही राज्य और देशों को चलाया है । आज हम जानेंगे नारीवाद की संकल्पना क्या है ?

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वास्तव में नारीवादी आंदोलन पश्चिम की देन है । तो प्रश्न यह उठता है कि क्या नारीवाद को भारत में लागू किया जा सकता है या नहीं । भारत में नारीवाद को उस रूप में नहीं लागू किया जा सकता है । जिस प्रकार से पश्चिम में भारत में महिला बचपन में पिता युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रही है । यहां पर प्राचीन काल से ही स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में निम्न कोटि का माना गया है । स्त्री को दास या सेविका तथा पुरुष को स्वामी का दर्जा प्रदान किया गया है । इसका प्रमाण प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है । मनु स्मृति, मिताक्षरा आदि ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति काफी खराब थी ।

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नारीवाद का अर्थ (Meaning of Feminism)

सभी क्षेत्रों में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार देने के लिए स्त्रियों के समर्थन से उत्पन्न हुए सामाजिक आंदोलन को नारीवाद कहा जाता है । यह एक ऐसा विचार है जो स्त्री और पुरुष के बीच असमानता को अस्वीकार कर नारी के बौद्धिक और व्यवहारिक रूप में सशक्तिकरण पर बल देता है । यह लैंगिक भेदभाव को अस्वीकार करता है । जो मूलतः नारी की स्थिति का प्रमुख कारण है । इस विचारधारा की उत्पत्ति प्रमुखता पितृसत्तात्मकता (पुरुष प्रभुत्व या पुरुष द्वारा शक्ति के दुरुपयोग करने की सत्ता) के विरोध स्वरूप उत्पन्न हुआ ।

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पुरुष वर्चस्व समाज की स्थापना, जेंडर डिफरेंसेस की समाप्ति पर बल, सामाजिक न्याय पर बल, नारी अधिकार की मांग, आर्थिक स्वतंत्रता, नारी स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त हैं ।

पितृसत्तात्मकता (Patriarchy in hindi)

प्राचीन काल से ही समाज में यह धारणा विद्यमान रही है कि पुरुष का कार्य घर के बाहर और स्त्री का सरोकार घर के अंदर के कामों से है । जैसे भोजन बनाना, बच्चों की देखभाल तथा बड़ों की सेवा आदि ।

आधुनिक समाज एक पुरुष प्रधान समाज है, जो पुरुषों की श्रेष्ठता में विश्वास करता है तथा सदैव स्त्रियों के संबंध में यह धारणा रही है कि स्त्री हीन होती है । पितृसत्तात्मकता इसका एक प्रमुख कारण रही है । इस व्यवस्था में परिवार के प्रबंधन में पुरुषों का वर्चस्व रहता है । वही निर्णय करता है और सलाह देता है । इसके कारण भी अपनी इस सत्ता का प्रयोग स्त्रियों पर किया ।

इसकी व्याख्या मोटे तौर पर दो रूपों में की गई है । संकुचित अर्थ में एक-

राजनीतिक विचारधारा के रूप में नारीवाद

महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए समानता हेतु किया गया एक सामाजिक आंदोलन है, जो लिंगवादी सिद्धांत अर्थात पुरुष वर्चस्वता तथा सामाजिक शोषण की समाप्ति पर बल देता है । विस्तृत अर्थ में नारीवादी कई भिन्न परंतु अंतसंबंधित संकल्पनाओं का एक पुंज है । जिसका प्रयोग जेंडर की सामाजिक यथार्थता तथा लिंग असमानता की उत्पत्ति प्रभाव तथा परिणामों के अध्ययन एवं विश्लेषण में किया जाता है ।

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आन्दोलन के रूप में नारीवाद

एक आंदोलन के रूप में नारीवाद का जन्म कब और कैसे हुआ ? इस संबंध में निश्चितता नहीं है । यही नहीं इस आंदोलन के उद्देश्य तथा संचालन में भी भिन्नता पाई जाती है । ऐसा माना जाता है कि नारीवाद का आरंभ एक राजनीतिक आंदोलन (समान राजनीतिक मताधिकार) के रूप में हुई थी । बाद में यह आंदोलन ना केवल स्त्रियों के विकास बल्कि उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के क्षेत्र में फैल गया । इस आंदोलन ने सामाजिक आंदोलनों को तो प्रभावित किया ही है, बल्कि धीरे धीरे इसमें प्राकृतिक विज्ञानों में भी अपने पैर पसारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ।

आइये अब जानते हैं, कुछ नारीवादियों के विचारों के बारे में कि वह नारीवाद को किस नज़रिये से देखते हैं ।

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Massachusetts Institute of Technology संस्थान में विज्ञान के दर्शन शास्त्र और इतिहास की टीचर एलिविन फॉक्स केलर ने अपनी पुस्तक Reflection on Gender Science रिफ्लेक्शन ऑन जेंडर साइंस में नारीवाद पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, कि

“प्राकृतिक विज्ञान विशेष रूप से प्राकृतिक जीवशास्त्री भी पुरुषवादी सोच की गिरफ्त में जकड़े हुए हैं । किंतु नारीवादी समीक्षा के प्रकाश में विज्ञानों में भी परिवर्तन आ रहा है । आधुनिक जीवविज्ञान नारी के महत्व को दर्शाता है, जिसके कारण विज्ञान जगत में भी स्त्रियों की दशा में परिवर्तन ला दिया है ।”

दो सौ साल पहले विश्व की पहली नारिवादिन Mary Wollstonecraft ने कहा था –

“मैं यह नहीं कहती कि पुरुष के बदले स्त्री का वर्चस्व पुरुष पर स्थापित हो, जरूरत तो इस बात की है कि स्त्री को स्वयं अपने बारे में सोचने विचारने और निर्णय लेने का अधिकार मिले ।”

स्टोनक्राफ्ट की आवाज आज भी नारी वादियों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है । उनके अनुसार-

“स्त्री ना तो स्वयं गुलाम रहना चाहती है और ना ही पुरुष को गुलाम बनाना चाहती है । स्त्री चाहती है, मानवीय अधिकार । जैविक विभिन्नता के आधार पर वह अधिकार से वंचित नहीं होना चाहती ।”

इसीलिए दुनिया की प्रत्येक स्त्रियां चाहती हैं कि वह किसी वर्ग या पेशे की हो यह स्वीकार करें कि स्त्री को पुरुषों के बराबर अधिकार मिलना ही चाहिए ।

नारीवाद की अवधारणा (Concept of feminism)

नारीवाद स्त्री पुरुष समानता को प्रतिपादित करने वाली विचारधारा है । इसकी मान्यता है कि स्त्री पुरुष से किसी भी मायने में कमजोर नहीं है । अतः उसे पुरुषों के समान समझा जाए और पुरुषों के बराबर अधिकार भी मिलने चाहिए ।

मेरी वॉल स्टोनक्राफ्ट ने अपनी पुस्तक बीटी कैसन ऑफ द राइट ऑफ वूमेन 1978 में नारीवाद को नारी अधिकारों की मांग के रूप में परिभाषित किया । जो पुरुषों के समान अधिकारों की मांग करता है ।

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केट मिलेट Kete Millet ने अपनी पुस्तक सेक्सुअल पॉलिटिक्स में लिखा है कि नारी को पितृतन्त्रीय व्यवस्था की जकड़न से अलग कर उसकी स्वतंत्रता को कायम रखने को ही नारीवाद कहा जाता है ।

J. S. Mill ने अपनी पुस्तक सब्जेक्शन ऑफ वीमेन 1869 में नारीवादी की अवधारणा में स्त्री पुरुष समानता पर बल दिया है । Mill का माना कि किसी समाज में स्त्री पुरुष समानता और संबंध का मूल आधार प्रेम, सौहार्द और मित्रता है । स्त्री पुरुष सहचर हैं । कोई किसी पर अपना प्रभुत्व नहीं स्थापित कर सकता । दोनों का समाज पर बराबर का हक है । अतः स्त्री पर पुरुष का वर्चस्व नहीं स्वीकार किया जा सकता ।

बेट्टी फ्रीडन ने अपनी पुस्तक ‘द फेमिनिन मिस्टीक’ 1965 में नारीवाद की धारणा में नारी को पूरे समाज का आधा हिस्सा मानते हुए उसके अधिकार को वापस दिलाने पर बल दिया है ।

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सिमोन दी बुआ ने अपनी पुस्तक ‘द सेकण्ड सेक्स’ 1949 में नारीवादी का मुख्य लक्ष्य पुरुषों का हर स्तर पर विरोध करना है । इसका प्रसिद्ध नारा था कि स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है । स्त्री को समाज में पुरुषों ने अपने हवस का शिकार बनाया है । अतः उसे अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ा होना होगा तथा स्वयं लड़ना होगा ।

आशारानी बोहरा ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय नारी: दशा और दिशा’ 1983 में लिखा है कि नारीवाद नारी का पुरुषों के प्रति संघर्ष नहीं वरन सोहागपुर स्थिति में उसे हक दिलाने का एक विचार तरीका है ।

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प्रभा खेतान ने सिमोन दी बुआ की पुस्तक ‘द सेकण्ड सेक्स’ का हिंदी में “स्त्री उपेक्षिता” नाम से अनुवाद किया है । उन्होंने लिखा है कि स्त्री आधी दुनिया है । आधा हिंदुस्तान है । फिर भी समाज में उसे डायन को लक्षणों तथा राक्षसी आदि की संज्ञा दी जाती है । नारी एक प्रकार का दमन मिलती है और नारीवाद इसी दमन से स्त्री मुक्ति अब उसकी सामूहिक चेतना के विकास के लिए प्रयत्नशील हैं ।

इस प्रकार यदि नारीवाद के मूल तत्वों पर विचार करें, तो इसमें निष्कर्ष के रूप में निम्न बातें शामिल हैं ।

इस दुनियां में स्त्रीयों के अधिकारों के लिये पश्चिमी जगत से आवाज़ उठी और फिर पूरी दुनिया मे फैल गई । प्राचीन काल से लेकर वर्तमन युग तक अनेक बुद्धिजीवियों और विचारकों ने नारीवाद को लेकर अनेकों आंदोलन किये, अभियान चलाए और विचार दिए । जिसके जरिये दुनियां में स्त्रियों को लेकर जागरूकता फैली और नारीवाद के अभियानों को तीव्रता मिली । ये सदियों से चलता आ रहा एक मुद्दा जिसने दुनिया में महिलाओं को सम्मान दिलाया ।

तो दोस्तों ये था नारीवाद की संकल्पना, अवधारणा और विचार । अगर Post अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तों के साथ ज़रूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!

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