कौटिल्य के राज्य संबंधी विचार

राज्य के बारे में कौटिल्य के विचार

Hello दोस्तों ज्ञानोदय में आपका एक बार फिर स्वागत है । आज हम बात करेंगे, राज्य के बारे कौटिल्य के विचारों की । यानी राज्य उत्पत्ति का सिद्धांत । वर्तमान में कौटिल्य को कौन नहीं जानता ? भारतीय राजनीति में महान चिंतक कौटिल्य को मुख्यता तीन नामों से जाना जाता है । चाणक्य, विष्णुगुप्त और कौटिल्य । इन नामों में चाणक्य सबसे महत्वपूर्ण और प्रचलित हैं ।

कौटिल्य को राजनीति में कूटनीति और शासन व्यवस्था के लिए जाना जाता है । कौटिल्य व्यवहारिक और यथार्थवादी विचारक थे । इन्होंने न सिर्फ राजनीति में दंड नीति पर भी अपने विचार दिए, बल्कि प्राचीन भारतीय राजनीति में इनका स्थान सर्वोच्च माना जाता है । देश को एक मज़बूत केंद्रीय प्रशासन देने के लिए कौटिल्य को जाना जाता है । इन्होंने अपनी महान पुस्तक अर्थशास्त्र में राज्य की उत्पत्ति तथा राजा व राज्य के कार्यों के संबंध में विस्तार से वर्णन किया है ।

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आइये जानते हैं, राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत, राज्य के उद्देश्य और प्रमुख कार्यों के बारे में । जिनके बारे में कौटिल्य ने अपने विचार दिए हैं ।

राज्य की उत्पत्ति, उद्देश्य और प्रमुख कार्य

कौटिल्य के अनुसार मनुष्य प्राचीनकाल से ही प्राकृतिक अवस्था में रहता आया है । यानी इंसान का रहन सहन आदिवासियों की तरह था । जिस तरह वह जंगल में रहकर  गुजर बसर करते थे । वैसे ही  प्रारंभ में मनुष्य  जंगलों में निवास करता था । इस तरह मनुष्य का जीवन  बहुत ही संघर्षों में गुजरता था । यह अवस्था उसी तरह  थी, जिस तरह हाब्स ने हमें  बताया है । हाब्स की तरह कौटिल्य उस प्राकृतिक अवस्था को बिना राज्य, बिना कानून के तथा नैतिकता पूर्ण मानते है । नियम और कानून की अनुपस्थिति में अमीर लोग गरीबों का शोषण करते थे । जिस तरह एक बड़ी मछली किसी छोटी मछली को अपना भोजन बनाती है ।

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इस तरह शोषण और अराजकता की स्थिति से परेशान आकर मनुष्यों ने विवस्वान के पुत्र मनु को अपना राजा स्वीकार किया । मनु और प्रजा के बीच एक समझौता किया गया । इसके अनुसार राजा को शासन चलाने हेतु, अपनी खेती से अन्न की उपज का छठवां भाग, व्यापार द्वारा प्राप्त धन का दसवां भाग और हिरण्य की आय का कुछ भाग कर (Tax) के रूप में देने का निर्णय किया । साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि कर से प्राप्त धन का अधिकारी वही राजा होगा, जो अपनी प्रजा की रक्षा करेगा, धन-धान्य से सुखी रखेगा तथा उसकी बाधाओं एवं किसी आक्रमण से जनता की रक्षा करेगा ।

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इस प्रकार यह समझौता एक द्विपक्षीय समझौता था, जिससे राजा और प्रजा दोनों बंधे हुए थे । दोनों राजा और प्रजा एक दूसरे के प्रति अपनी अपनी ज़िम्मेदारी निभाने को बाध्य थे । कौटिल्य के अनुसार यदि राजा अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा तो, राजा प्रजा पर अपने अधिकार से वंचित होगा । जनता कर से राजा की सहायता करना बंद कर देगी तथा वह उनका राजा नहीं रहेगा । कौटिल्य के समय में उस समय की जनता संविदा या समझौते से अनजान नहीं थी ।

इस तरह कौटिल्य राजा और प्रजा के द्वारा राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत के बारे में हमें बताते हैं ।

राज्य के उद्देश्य

कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में राज्य के कुछ प्रमुख उद्देश्य भी बताए हैं । अब जान लेते हैं कि वह प्रमुख उद्देश्य कौन-कौन से हैं ? तो राज्य के प्रमुख तीन उद्देश्य माने जाते हैं । जो कि इस प्रकार हैं ।

1 आंतरिक शांति एवं सुरक्षा स्थापित करना ।

2 राज्य की बाहरी शत्रुओं से रक्षा करना ।

3 राज्य की सुख समृद्धि के लिए कल्याणकारी कार्यों की व्यवस्था करना ।

हालांकि इन तीन उद्देश्यों का वास्तविक उद्देश्य एक ही है, यानी प्रजा की सुरक्षा और समृद्धि करना ।

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कौटिल्य का कहना है कि

“प्रजा के सुख में राजा का सुख है ।”

कौटिल्य के अनुसार राजा और राज्य में कोई भेदभाव नहीं है । वह राजा और राज्य को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं ।

राज्य के प्रमुख कार्य

1 राज्य विस्तार

2 राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना

3 राज्य और उसकी प्रजा की सुरक्षा

4 राज्य के आर्थिक कार्य

5 राज्य के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्य

कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र के अंतर्गत । राज्य के कार्यों में, राज्य विस्तार को महत्वपूर्ण माना गया है । इसके अलावा राज्य को अपने क्षेत्रों में शांति एवं सुरक्षा स्थापित करने के साथ-साथ, राज्य हित में महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक एवं न्यायिक कार्य भी करने आवश्यक होते हैं । कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्यों का विवरण इस प्रकार है –

1 राज्य विस्तार –

कौटिल्य के अनुसार राज्य एक जीवित प्राणी की तरह है, जिस प्रकार एक सजीव प्राणी का लगातार विकास होता है, उसी प्रकार राज्य का और उसके अंग का भी लगातार विकास होता रहता है । राज्य के विकास का होना उसके अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । अतः राज्य के विकास हेतु कौटिल्य ने राज्य का यथासंभव विस्तार करते रहने का औचित्य रखा है । युद्ध के द्वारा अपने राज्य को बढ़ाने के लिए, हरे हुए राजा के राज्य की सेना तथा उसके प्रजा के साथ कैसा व्यवहार किया जाए इसका भी कौटिल्य ने उल्लेख किया है ।

2 राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना –

प्रारंभिक काल से ही राज्यों को बनाने का उद्देश्य शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना करना है । कौटिल्य ने इस कार्य को महत्व देते हुए यह स्पष्ट किया है कि राज्य के अंतर्गत अराजकता, शोषण एवं अव्यवस्था को रोकने के लिए, राजा को समाज में शांति एवं व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए ।

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शांति व्यवस्था की स्थापना के लिए कौटिल्य के अनुसार सेना व कुशल गुप्तचर विभाग की सहायता से राज्य में, राजद्रोहियों एवं अन्य अपराधियों का पता लगाकर, उन्हें दंडित किया जाना चाहिए । इसके अलावा इस बात का पता लगाना भी गुप्तचर व्यवस्था का एक अनिवार्य कार्य होना चाहिए कि राज्य की नीतियां सार्थक है, अथवा नहीं और उनका प्रजा पर क्या प्रभाव है ? यहां तक कि राज्य में कौन गरीब है और कौन दुखी है, इस बात का भी पता लगाना भी गुप्तचरों का कार्य है ।

3 राज्य और उसकी प्रजा की सुरक्षा –

राज्य को स्थायी और मज़बूत रखने के लिए कौटिल्य ने राज्य के क्षेत्र को एक प्रभु सत्ता के आदिमता में सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर बल दिया है । सैनिक शक्ति को संगठित करने और साथ ही साम, दाम, दंड, भेद की नीतियों का अनुसरण करते हुए, राज्य में दुर्ग और किलो का निर्माण, एक सैनिक शक्ति का निरंतर विकास करने से, राज्य अपने ऊपर बाहरी आक्रमण के फलस्वरुप अचानक आए हुए संकट का सफलतापूर्वक सामना कर सकता है । और उपयुक्त समय पर अपनी विस्तारवादी नीतियों को भी क्रियान्वित कर सकता है ।

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कौटिल्य ने जनता की सुरक्षा और संरक्षण में ही राज्य की रक्षा और अस्तित्व को संभव बताया है । राज्य अथवा उसके शासक वर्ग का यह प्रथम कर्तव्य है कि राज्य के उन कर्मचारियों का दमन करें, जो की लोगों से रिश्वत आदि लेकर उनका शोषण करते हैं । राज्य के साहूकारों और व्यापारियों पर भी सतर्क दृष्टि एवं नियंत्रण रखा जाना चाहिए, ताकि वे ना तो सूद और मुनाफे के नाम पर जनता से अधिक धन लूट सके और ना ही उनका किसी भी प्रकार से शोषण कर पाए । कौटिल्य का मत है कि ऐसा करने से राज्य के प्रति जनता की आस्था बढ़ेगी और देश के कोने कोने में शांति और व्यवस्था भी बनी रहेगी ।

4 राज्य के आर्थिक कार्य –

राज्य के सुचारू रूप से संचालन के लिए राज्य के पास धन होना भी आवश्यक है । किसी भी राज्य की उन्नति तभी संभव है, जब उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो । सभी प्रकार से राज्य को मजबूत एवं सुखी संपन्न बनाने के लिए राज्य में कृषि व्यवस्था एवम उद्योग धंधों का विकास किया जाना चाहिए तथा इस दृष्टिकोण से राज्य को अपने विभाग अध्यक्षों की नियुक्ति करके उसके माध्यम से कृषि व्यवसाय, पशुपालन तथा औद्योगिक संस्थानों के नियंत्रण एवं विकास में दक्ष होना चाहिए ।

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राष्ट्रीय व्यापार के विकास हेतु राज्य में देसी और विदेशी व्यापार का संतुलन रखना भी, कौटिल्य ने आवश्यक माना है । लोक कल्याण के हित में राज्य, लोगों की व्यक्तिगत कार्य में भी हस्तक्षेप करके उन्हें सीमित कर सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य प्रशासन के क्षेत्र में कौटिल्य व्यक्तिवाद का समर्थक नहीं हैं ।

5 राज्य के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्य –

कौटिल्य के अनुसार व्यक्ति के विकास के लिए राज्य को ही उत्तरदाई हैं । उनका यह विश्वास है कि मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह अपनी उन्नति और विकास के लिए समाज पर निर्भर रहता है । अतः कौटिल्य ने एक स्थान पर यह स्पष्ट किया है कि समाज के विकास को भी ध्यान में रखते हुए, राज्य को सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों की व्यवस्था एवं रक्षा करनी चाहिए । यही कारण है कि कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में निर्धन व्यक्तियों एवं दुखियों की सहायता करने पर विशेष बल दिया है ।

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शिक्षा के विकास के संबंध में कौटिल्य का ने कहा है कि राज्य को चाहिए कि वह इस दिशा में विशेष रूप से ध्यान दें । इसके लिए कौटिल्य ने ब्राह्मणों को पर्याप्त सहायता एवं शिक्षा अनुदान देने का सुझाव रखा है । राज्य में उचित शिक्षा व्यवस्था करने के नाते एक शासक का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह इस बात का निरीक्षण करें कि पति पत्नी, पिता पुत्र, गुरु शिष्य अथवा भाई-बहन सभी अपने-अपने दायित्वों का भली-भांति पालन कर रहे हैं अथवा नहीं । वृद्ध मनुष्य अपाहिज हो तथा रोगियों के जीवन रक्षा का भार भी राज्य द्वारा वहन किया जाना चाहिए ।

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कौटिल्य ने समाज में व्यवहार वैवाहिक संबंध विच्छेद के विषय में भी नियम बताए हैं । उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के उद्देश्य से राज्य को उपयुक्त निर्णय लेने के लिए भी नियम बनाए हैं । राज्य के उपयुक्त कार्य के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कौटिल्य ने राज्य के उन कार्यों और दायित्वों का निर्वहन करने का आह्वान किया हैं, जो कि वर्तमान लोककल्याणकारी राज्य स्वरूप से बहुत हद तक मेल खाता है ।

तो दोस्तों ये थे राज्य के बारे में कौटिल्य के विचार, राज्यों की उत्पत्ति, उद्देश्य और उनके प्रमुख कार्य । अगर ये post आपको अच्छी लगी हो तो आप अपने दोस्तों के साथ Share कर सकते हैं । तब तक के लिए धन्यवाद !!

This Post Has 5 Comments

  1. Yasuba zaidi

    Best post

  2. Anjali

    बहुत अच्छी जानकारी दिया है आपने…

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