अस्तित्ववाद क्या है

What Existentialism in Political Science in Hindi

Hello दोस्तों ज्ञानउदाय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करेंगे, राजनीति विज्ञान में अस्तित्ववाद के बारे में (Existentialism in Hindi) । इसमें हम बात करेंगे व्यक्ति के अस्तित्व के बारे में । व्यक्ति कई कारणों से अपना अस्तित्व खो चुका है । कई परिस्थितियां ऐसी हैं, जो व्यक्ति की सोच पर हावी हो चुकी हैं । अस्तित्ववाद कोई वैचारिक संस्था (Ideological Cult) नहीं है । ना तो यह कोई विचारधारा है और ना ही कोई व्यवस्था है । ना तो इसमें कोई निश्चित सिद्धांत हैं । और ना ही इसमें सिद्धांतों को प्रतिपादित करने का कोई प्रयास किया गया है ।

इसके अंतर्गत आने वाले विचारक तरह-तरह के विचारों से प्रभावित हैं । परंतु एक बात जो सभी  विचारकों को एकमत करती है, वह है व्यक्ति और उसका अस्तित्व (Existence of Human) ।।

इस संबंध में निम्नलिखित विचारकों ने अपने महत्वपूर्ण विचार दिए हैं ।

काफ़का ने अपने उपन्यास ‘द कैसल, द ट्रायल’ (The Castle, The Trail) में लिखा है कि

“एकरूपता (Uniformity) आने से व्यक्ति कैदियों की तरह हो गया है, क्योंकि आज उसकी पहचान उसके नाम या व्यक्तित्व से नहीं, बल्कि उसके नंबर या क्रमांक से होती है । उसकी स्वतंत्रता, भावना तथा पसंद से नहीं ।”

सिमोन द बुआ ने अपने उपन्यास ‘द सेकण्ड सेक्स’ मैं बताया है कि

“महिलाओं को कोई स्वतंत्रता नहीं है ना तो उनकी कोई पसंद ही है, और वह कोई निर्णय नहीं ले सकते क्योंकि सभी निर्णय पुरुषों के द्वारा लिए जाते हैं ।”

डेकार्ट के अनुसार

“मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं (I think, therefore I am) परंतु आज स्थिति यह हो गई है कि मैं उपभोग करता हूं इसलिए मैं हूं । (I consume therefore, I am.)”

अस्तित्व वादियों में विचारक सार्त्व ने मुख्य रूप से प्रमुख विचार दिया है कि

“अस्तित्व मूल तत्व से पहले है ।”

इसी तरह पूर्व के विचारकों का मानना था कि मूलतत्व (Essence) पहले हैं तथा अस्तित्व (Existence) बाद में आया । इसी तरह से जो मूलतत्व को प्राथमिकता देते हैं । अस्तित्ववादी उनका विरोध करते हैं तथा अस्तित्व को प्राथमिकता देते हैं । अस्तित्ववादी मानते हैं कि व्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण गुण उसकी भावनाएं हैं, ना कि उसकी सोच (thoughts) ।

व्यक्ति ही कर्ता (Actor) होता है । अतः अस्तित्व को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।

इसके अलावा प्लेटो, ईगल आदि विचारक सर्वप्रथम मूलतत्व (Essence) या विवेक, आइडिया को प्रधानता देते हैं । जबकि अस्तित्ववादी विचारक अस्तित्व को प्रधानता देते हैं और मानते हैं कि अस्तित्व से ही मूलतत्व का निर्माण होता है । लेकिन इनका कोई व्यवस्थित सिद्धांत नहीं है और ना ही कोई निश्चित विचार संरचना है । इसमें कुछ उदारवादी हैं । तो कुछ अनु उदारवादी, कुछ वामपंथी हैं । तो कुछ दक्षिणपंथी तथा कुछ आस्तिक तथा नास्तिक । सभी इस में सम्मिलित हैं । यह आपस में विचारों में भी समानता नहीं रखते तथा अपनी स्थिति (Position) को भी बदलते रहते हैं । अर्थात अस्तित्ववादी विरोधाभासी (paradox) विचार वाले हैं ।

जोड ने समाजवाद को परिभाषित करते हुए लिखा है कि

“समाजवाद ऐसी टोपी (Cap) की तरह है, जिसका आकार इसलिए बिगड़ गया है क्योंकि हर कोई इसे अपने तरीके से पहनना चाहता है ।”

उसी प्रकार से अस्तित्ववाद के संबंध में सात्र्व ने कहा है कि

“अस्तित्ववाद ऐसे कैप की तरह है, जिसको अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से पहनते हैं ।”

इसी प्रकार उसने एक महिला का उदाहरण दिया जो पहले तो गाली देती है और बाद में क्षमा मांगती है । यह कहते हुए कि माफ कीजिए ! हम अस्तित्ववादी हैं । इस प्रकार अस्तित्व वादियों का कोई निश्चित सिद्धांत नहीं है । यह किसी एक विचारधारा तथा एक व्यवस्था के पक्ष में नहीं है तथा यह मिश्रित विचारधारा में विश्वास करते हैं ।

अस्तित्ववाद वह दार्शनिक सिद्धांत है, जो मनुष्य के अस्तित्व पर चिंतन करता है । समकालीन दर्शन में अस्तित्ववाद अपनी मान्यताओं के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय दर्शन सिद्ध हुआ है । प्राचीन काल से ही इस का उद्भव हो चुका था तथा अरस्तु, एक्वीनास तथा नीत्शे में इस तरह का चिंतन मिलता है । आधुनिक काल में इसकी शुरुआत 1813 में डेनमार्क निवासी सोरेन कीर्कगार्ड (Soren Kierkegaard) द्वारा की गयी । इसलिए इसे अस्तित्ववाद का जनक माना जाता है ।

कीर्कगार्ड ने जब अस्तित्ववाद के संबंध में लिखना प्रारंभ किया तो, उस समय दर्शन पर हीगल का प्रभाव था । इस कारण वह अपना लेख छद्म नाम से लिखता था । बीसवीं शताब्दी में जर्मनी में मार्टिन हीडेगर और कार्ल जैस्पर, फ्रांस में ग्रेबीएल मर्शेल, अल्बर्ट कामू तथा ज्यां पाल सार्त्र जैसे विचारकों तथा बर्डिया आदि ने अपने विचार दिये तथा अस्तित्ववादी आंदोलन को एक गति प्रदान की ।

अस्तित्ववादी विचारकों को की दो श्रेणियां हैं ।

1) आस्तिक अस्तित्ववाद विचारक ।  इसमें कीर्कगार्ड, जैस्पर, मर्शेल तथा निकोलाइ बर्डिया आदि को शामिल किया जाता है ।

2) नास्तिक अस्तित्ववादी विचारक । जिसमे हीडेगर, सार्त्व और कामू आदि को शामिल किया जाता है ।

सभी अस्तित्ववादी विचारकों के विचार आपस में अलग-अलग हैं । फिर भी इनमें एक पारिवारिक समानता पाई जाती है । यह सभी विचारक पहले से चली आ रही, चिंतन या परंपराओं का विरोध करते रहे हैं । इस तरह से अस्तित्ववाद दर्शन के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के समान हैं । इनका विरोध दो स्तरों पर किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं ।

अ. परंपरागत दर्शन का विरोध ।

ब. समय की परिस्थितियों का विरोध ।

अस्तित्ववादी विचारक मानते हैं कि परंपरागत दर्शन ने व्यक्ति की अवहेलना की है । परंपरागत दर्शन में प्रमुख दो धारणाएं हैं । पहली यथार्थवादी (Realistic) जिस का प्रतिपादन अरस्तु ने किया था और दूसरी है, आदर्शवादी (Idealistic) जिसका प्रारंभ प्लूटो ने किया था ।

इन दोनों धारणाओं ने चाहे वह आदर्शवादी हो या यथार्थवादी हो दोनों ने ही व्यक्ति की अवहेलना की है ।

यथर्थवादी उपागम के बारे में जानने के लिए यहाँ Click करें ।

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यथार्थवादी दर्शन में व्यवहारिक अध्ययन का उपागम अपनाया जाता है । जिसमें व्यक्ति को एक वस्तु मानकर उससे संबंधित प्रयोग किए जाते हैं । जबकि उसके विचार, मनोभाव तथा लक्ष्य को महत्व नहीं दिया जाता । अर्थात यथार्थवादी व्यक्ति को अध्ययन की एक वस्तु मानकर अध्ययन करते हैं तथा उसके विचार तथा भावनाओं की उपेक्षा करते हैं ।

इसके अतिरिक्त आदर्शवादी (Ideological) आत्मा, विचार या प्रत्यय को प्रमुखता देते हैं । जो कि एक अमूर्त धारणा है । यह किसी विशेष व्यक्ति का अध्ययन नहीं करते बल्कि मनुष्य का अध्ययन करते हैं तथा संपूर्ण व्यक्तियों का समान्यायिकरण (Generalization) करते हैं । इस प्रकार यहां भी व्यक्ति को नकार दिया जाता है । रूसो ने कहा है कि

“व्यक्ति स्वतंत्र जन्मा है, पर सभी जगह वह बेड़ियों में जकड़ा हुआ है ।”

तब भी वह एक व्यक्ति विशेष की बात नहीं करता बल्कि संपूर्ण मनुष्य को सामान्य ही कर देता है । इस प्रकार व्यक्ति को अपनी सोच, पसंद आदि को ध्यान में रखकर आदर्शवादी मानव के अमूर्त आत्मा का अध्ययन करते हैं । स्वतंत्रता, समानता, न्याय आदि सभी अमूर्त धारणाएं हैं ।

अस्तित्ववादी अस्तित्व का विशेष अर्थ में प्रयोग करते हैं । यह मानते हैं कि अस्तित्व केवल मनुष्य में हैं और किसी अन्य प्राणी में नहीं । विश्व में अन्य चीजें भी हैं, लेकिन अस्तित्व केवल मनुष्य का है । क्योंकि अस्तित्व से तात्पर्य अस्तित्व की चेतना से है और अस्तित्व की चेतना (Consciousness of Existence) केवल मनुष्य में ही होती है । सबसे पहले मनुष्य अस्तित्व में आया है । तब यह अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुरूप वह मूल तत्व का निर्माण करता है ।

इस प्रकार यदि हम यह मान लें कि मूलतत्व (Essence) पहले हैं तथा अस्तित्व बाद में है तो व्यक्ति के पास चयन की स्वतंत्रता (Freedom of Choice) नहीं रहेगी । क्योंकि व्यक्ति, एक व्यक्ति तब होता है, जब उसके पास चयन करने की स्वतंत्रता होती है ।

सभी अस्तित्ववादियों की विशेषता यह है कि वह किसी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है, क्योंकि कोई भी व्यवस्था कहीं ना कहीं व्यक्ति की स्वतंत्रता के विपरीत होती है । अस्तित्ववादी मानते हैं कि मनुष्य वह है, जो वह होना चाहता है । यह व्यक्ति को सदैव स्वतंत्र मानते हैं ।

इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह सीमाओं में विश्वास नहीं करते । यह सीमाएं चयन का परिणाम होती हैं और समस्या तब उत्पन्न होती है, जब हम चुनने और सफलता में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । सफलता अन्य कारकों पर निर्भर करती है और जब हम स्वतंत्रता को केवल चुनाव मान लेते हैं, तो चुनने में परेशानी आ जाती है । व्यक्ति के पास निरपेक्ष स्वतंत्रता है । लेकिन उसकी कुछ सीमाएं भी हैं ।

अस्तित्ववादी विचारक यह जानने का प्रयास करते हैं कि मनुष्य में क्या कमियां हैं । आज व्यक्ति के अंदर मानवीय मूल्य जैसे दया, क्षमा, भावना आदि की बहुत ज्यादा कमी हो रही है । औद्योगिकीकरण तथा युद्धों के कारण व्यक्ति के निजी सोच, विचार तथा व्यक्तित्व का बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है । जिसके कारण आज वह एक स्वतंत्र जीवन का आनंद नहीं उठा पा रहा है ।

अगर निष्कर्ष के रूप में कहा जाए तो अस्तित्ववाद ना तो कोई विचारधारा है और ना ही कोई दर्शन । यह ना तो कोई प्रणाली है और ना ही कोई पंथ । यह अधिक से अधिक मानव जीवन को समझने का एक दृष्टिकोण है । भले ही यह एक सक्रिय आंदोलन ना रहा हो पर इसमें वर्तमान में यांत्रिक और भौतिकवादी सभ्यता के युग में मानवीयकरण की प्रवृत्तियों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । अंत में यह कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति को उसकी मान्यता, उसकी विशेषता, उसकी गरिमा और सर्वोपरि उसकी पहचान की अनुभूति कराने वाली एक विचारधारा है ।

तो दोस्तों यह था राजनीति विज्ञान में अस्तित्ववाद  (Human Existentialism in Hindi Political Science) अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें तब तक के लिए धन्यवाद !!

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